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जयशंकर प्रसाद की कहानी मनुष्य के मन में पैदा होनेवाले भ्रम एवं संदेह की मनोवैज्ञानिक पड़ताल करती है. पढ़ा लिखा युवक नौकरी की तलाश में श्यामा के घर किराएदार है. मकान मालकिन एक विधवा है. रामनिहाल को श्यामा से एकतरफ़ा प्यार हो जाता है, जबकि श्यामा के लिए वह केवल एक दोस्त है. कहानी में पति-पत्नी मोहन और मनोरमा दो और अहम् पात्र हैं. मोहन को अपनी पत्नी मनोरमा के चरित्र पर संदेह है. एक रात मनोरमा और मोहन के साथ नौका-विहार के दौरान रामनिहाल रिश्तों को लेकर एक तरह की उलझन में फंस जाता है.
रामनिहाल अपना बिखरा हुआ सामान बांधने में लगा. जंगले से धूप आकर उसके छोटे-से शीशे पर तड़प रही थी. अपना उज्ज्वल आलोक-खण्ड, वह छोटा-सा दर्पण बुद्ध की सुन्दर प्रतिमा को अर्पण कर रहा था. किन्तु प्रतिमा ध्यानमग्न थी. उसकी आंखें धूप से चौंधियाती न थीं. प्रतिमा का शान्त गम्भीर मुख और भी प्रसन्न हो रहा था. किन्तु रामनिहाल उधर देखता न था. उसके हाथों में था एक कागज़ों का बण्डल, जिसे सन्दूक में रखने के पहले वह खोलना चाहता था. पढ़ने की इच्छा थी, फिर भी न जाने क्यों हिचक रहा था और अपने को मना कर रहा था, जैसे किसी भयानक वस्तु से बचने के लिए कोई बालक को रोकता हो.
बण्डल तो रख दिया पर दूसरा बड़ा-सा लिफाफा खोल ही डाला. एक चित्र उसके हाथों में था और आंखों में थे आंसू. कमरे में अब दो प्रतिमा थीं. बुद्धदेव अपनी विराग-महिमा में निमग्न. रामनिहाल रागशैल-सा अचल, जिसमें से हृदय का द्रव आंसुओं की निर्झरिणी बनकर धीरे-धीरे बह रहा था.
किशोरी ने आकर हल्ला मचा दिया,‘‘भाभी, अरे भाभी! देखा नहीं तूने, न! निहाल बाबू रो रहे हैं. अरे, तू चल भी!”
श्यामा वहां आकर खड़ी हो गयी. उसके आने पर भी रामनिहाल उसी भाव में विस्मृत-सा अपनी करुणा-धारा बहा रहा था. श्यामा ने कहा,‘‘निहाल बाबू!”
निहाल ने आंखें खोलकर कहा,‘‘क्या है?. अरे, मुझे क्षमा कीजिए.” फिर आंसू पोंछने लगा.
“बात क्या है, कुछ सुनूं भी. तुम क्यों जाने के समय ऐसे दुखी हो रहे हो? क्या हम लोगों से कुछ अपराध हुआ?”
“तुमसे अपराध होगा? यह क्या कह रही हो? मैं रोता हूं, इसमें मेरी ही भूल है. प्रायश्चित करने का यह ढंग ठीक नहीं, यह मैं धीरे-धीरे समझ रहा हूं. किन्तु करूं क्या? यह मन नहीं मानता.”
श्यामा जैसे सावधान हो गयी. उसने पीछे फिरकर देखा कि किशोरी खड़ी है. श्यामा ने कहा,‘‘जा बेटी! कपड़े धूप में फैले हैं, वहीं बैठ.” किशोरी चली गई. अब जैसे सुनने के लिए प्रस्तुत होकर श्यामा एक चटाई खींचकर बैठ गयी. उसके सामने छोटी-सी बुद्धप्रतिमा सागवान की सुन्दर मेज पर धूप के प्रतिबिम्ब में हंस रही थी. रामनिहाल कहने लगा,“श्यामा! तुम्हारा कठोर व्रत, वैधव्य का आदर्श देखकर मेरे हृदय में विश्वास हुआ कि मनुष्य अपनी वासनाओं का दमन कर सकता है. किन्तु तुम्हारा अवलम्ब बड़ा दृढ़ है. तुम्हारे सामने बालकों का झुण्ड हंसता, खेलता, लड़ता, झगड़ता है. और तुमने जैसे बहुत-सी देव-प्रतिमाएं, शृंगार से सजाकर हृदय की कोठरी को मन्दिर बना दिया. किन्तु मुझको वह कहां मिलता. भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में, छोटा-मोटा व्यवसाय, नौकरी और पेट पालने की सुविधाओं को खोजता हुआ जब तुम्हारे घर में आया, तो मुझे विश्वास हुआ कि मैंने घर पाया. मैं जब से संसार को जानने लगा, तभी से मैं गृहहीन था. मेरा सन्दूक और ये थोड़े-से सामान, जो मेरे उत्तराधिकार का अंश था, अपनी पीठ पर लादे हुए घूमता रहा. ठीक उसी तरह, जैसे कंजर अपनी गृहस्थी टट्टू पर लादे हुए घूमता है.
“मैं चतुर था, इतना चतुर जितना मनुष्य को न होना चाहिए; क्योंकि मुझे विश्वास हो गया है कि मनुष्य अधिक चतुर बनकर अपने को अभागा बना लेता है, और भगवान् की दया से वंचित हो जाता है.
“मेरी महत्वाकांक्षा, मेरे उन्नतिशील विचार मुझे बराबर दौड़ाते रहे. मैं अपनी कुशलता से अपने भाग्य को धोखा देता रहा. यह भी मेरा पेट भर देता था. कभी-कभी मुझे ऐसा मालूम होता कि यह दांव बैठा कि मैं अपने आप पर विजयी हुआ. और मैं सुखी होकर, सन्तुष्ट होकर चैन से संसार के एक कोने में बैठ जाऊंगा; किन्तु वह मृग-मरीचिका थी.
“मैं जिनके यहां नौकरी अब तक करता रहा, वे लोग बड़े ही सुशिक्षित और सज्जन हैं. मुझे मानते भी बहुत हैं. तुम्हारे यहां घर का-सा सुख है; किन्तु यह सब मुझे छोड़ना पड़ेगा ही.” इतनी बात कहकर रामनिहाल चुप हो गया.
“तो तुम काम की एक बात न कहोगे. व्यर्थ ही इतनी” श्यामा और कुछ कहना चाहती थी कि उसे रोककर रामनिहाल कहने लगा,“तुमको मैं अपना शुभचिन्तक मित्र और रक्षक समझता हूं, फिर तुमसे न कहूंगा, तो यह भार कब तक ढोता रहूंगा? लो सुनो. यह चैत है न, हां ठीक! कार्तिक की पूर्णिमा थी. मैं काम-काज से छुट्टी पाकर सन्ध्या की शोभा देखने के लिए दशाश्वमेघ घाट पर जाने के लिए तैयार था कि ब्रजकिशोर बाबू ने कहा,‘तुम तो गंगा-किनारे टहलने जाते ही हो. आज मेरे एक सम्बन्धी आ गए हैं, इन्हें भी एक बजरे पर बैठाकर घुमाते आओ, मुझे आज छुट्टी नहीं है.
“मैंने स्वीकार कर लिया. ऑफ़िस में बैठा रहा. थोड़ी देर में भीतर से एक पुरुष के साथ एक सुन्दरी स्त्री निकली और मैं समझ गया कि मुझे इन्हीं लोगों के साथ जाना होगा. ब्रजकिशोर बाबू ने कहा,‘मानमन्दिर घाट पर बजरा ठीक है. निहाल आपके साथ जा रहे हैं. कोई असुविधा न होगी. इस समय मुझे क्षमा कीजिए. आवश्यक काम है.’
“पुरुष के मुंह पर की रेखाएं कुछ तन गईं. स्त्री ने कहा,‘अच्छा है. आप अपना काम कीजिए. हम लोग तब तक घूम आते हैं.’
“हम लोग मानमन्दिर पहुंचे. बजरे पर चांदनी बिछी थी. पुरुष ‘मोहन बाबू’ जाकर ऊपर बैठ गए. पैड़ी लगी थी. मनोरमा को चढ़ने में जैसे डर लग रहा था. मैं बजरे के कोने पर खड़ा था. हाथ बढ़ाकर मैंने कहा, आप चली आइए, कोई डर नहीं. उसने हाथ पकड़ लिया. ऊपर आते ही मेरे कान में धीरे से उसने कहा,‘मेरे पति पागल बनाए जा रहे हैं. कुछ-कुछ हैं भी. तनिक सावधान रहिएगा. नाव की बात है.’
“मैंने कह दिया,‘कोई चिन्ता नहीं’ किन्तु ऊपर जाकर बैठ जाने पर भी मेरे कानों के समीप उस सुन्दर मुख का सुरभित निश्वास अपनी अनुभूति दे रहा था. मैंने मन को शान्त किया. चांदनी निकल आई थी. घाट पर आकाश-दीप जल रहे थे और गंगा की धारा में भी छोटे-छोटे दीपक बहते हुए दिखाई देते थे.
“मोहन बाबू की बड़ी-बड़ी गोल आंखें और भी फैल गईं. उन्होंने कहा,‘मनोरमा, देखो, इस दीपदान का क्या अर्थ है, तुम समझती हो?’
‘गंगाजी की पूजा, और क्या?’ मनोरमा ने कहा.
‘यही तो मेरा और तुम्हारा मतभेद है. जीवन के लघु दीप को अनन्त की धारा में बहा देने का यह संकेत है. आह! कितनी सुन्दर कल्पना!’-कहकर मोहन बाबू जैसे उच्छ्वसित हो उठे. उनकी शारीरिक चेतना मानसिक अनुभूति से मिलकर उत्तेजित हो उठी. मनोरमा ने मेरे कानों में धीरे से कहा,‘देखा न आपने!’
“मैं चकित हो रहा था. बजरा पञ्चगंगा घाट के समीप पहुंच गया था. तब हंसते हुए मनोरमा ने अपने पति से कहा,‘और यह बांसों में जो टंगे हुए दीपक हैं, उन्हें आप क्या कहेंगे?’
“तुरन्त ही मोहन बाबू ने कहा,‘आकाश भी असीम है न. जीवन-दीप को उसी ओर जाने के लिए यह भी संकेत है.’ फिर हांफते हुए उन्होंने कहना आरम्भ किया,‘तुम लोगों ने मुझे पागल समझ लिया है, यह मैं जानता हूं. ओह! संसार की विश्वासघात की ठोकरों ने मेरे हृदय को विक्षिप्त बना दिया है. मुझे उससे विमुख कर दिया है. किसी ने मेरे मानसिक विप्लवों में मुझे सहायता नहीं दी. मैं ही सबके लिए मरा करूं. यह अब मैं नहीं सह सकता. मुझे अकपट प्यार की आवश्यकता है. जीवन में वह कभी नहीं मिला! तुमने भी मनोरमा! तुमने, भी मुझे.’
मनोरमा घबरा उठी थी. उसने कहा,‘चुप रहिए, आपकी तबीयत बिगड़ रही है, शान्त हो जाइए!’
“क्यों शान्त हो जाऊं? रामनिहाल को देख कर चुप रहूं. वह जान जाएं, इसमें मुझे कोई भय नहीं. तुम लोग छिपाकर सत्य को छलना क्यों बनाती हो?’ मोहन बाबू के श्वासों की गति तीव्र हो उठी. मनोरमा ने हताश भाव से मेरी ओर देखा. वह चांदनी रात में विशुद्ध प्रतिमा-सी निश्चेष्ट हो रही थी.
“मैंने सावधान होकर कहा,‘मांझी, अब घूम चलो.’ कार्तिक की रात चांदनी से शीतल हो चली थी. नाव मानमन्दिर की ओर घूम चली. मैं मोहन बाबू के मनोविकार के सम्बन्ध में सोच रहा था. कुछ देर चुप रहने के बाद मोहन बाबू फिर अपने आप कहने लगे,‘ब्रजकिशोर को मैं पहचानता हूं. मनोरमा, उसने तुम्हारे साथ मिलकर जो षड्यन्त्र रचा है, मुझे पागल बना देने का जो उपाय हो रहा है, उसे मैं समझ रहा हूं. तो’
‘ओह! आप चुप न रहेंगे? मैं कहती हूं न! यह व्यर्थ का संदेह आप मन से निकाल दीजिए या मेरे लिए संखिया मंगा दीजिए. छुट्टी हो.’
“स्वस्थ होकर बड़ी कोमलता से मोहन बाबू कहने लगे,‘तुम्हारा अपमान होता है! सबके सामने मुझे यह बातें न कहनी चाहिए. यह मेरा अपराध है. मुझे क्षमा करो, मनोरमा!’ सचमुच मनोरमा के कोमल चरण मोहन बाबू के हाथ में थे! वह पैर छुड़ाती हुई पीछे खिसकी. मेरे शरीर से उसका स्पर्श हो गया. वह क्षुब्ध और संकोच में ऊभ-चूभ रमणी जैसे किसी का आश्रय पाने के लिए व्याकुल हो गयी थी. मनोरमा ने दीनता से मेरी ओर देखते हुए कहा,‘आप देखते हैं?’
“सचमुच मैं देख रहा था. गंगा की घोर धारा पर बजरा फिसल रहा था. नक्षत्र बिखर रहे थे. और एक सुन्दरी युवती मेरा आश्रय खोज रही थी. अपनी सब लज्जा और अपमान लेकर वह दुर्वह संदेह-भार से पीड़ित स्त्री जब कहती थी कि ‘आप देखते हैं न’, तब वह मानो मुझसे प्रार्थना करती थी कि कुछ मत देखो, मेरा व्यंग्य-उपहास देखने की वस्तु नहीं.
“मैं चुप था. घाट पर बजरा लगा. फिर वह युवती मेरा हाथ पकड़कर पैड़ी पर से सम्हलती हुई उतरी. और मैंने एक बार न जाने क्यों धृष्टता से मन में सोचा कि,‘मैं धन्य हूं.’ मोहन बाबू ऊपर चढ़ने लगे. मैं मनोरमा के पीछे-पीछे था. अपने पर भारी बोझ डालकर धीरे-धीरे सीढ़ियों पर चढ़ रहा था.
“उसने धीरे से मुझसे कहा,‘रामनिहालजी, मेरी विपत्ति में आप सहायता न कीजिएगा!’ मैं अवाक् था.
श्यामा ने एक गहरी दृष्टि से रामनिहाल को देखा. वह चुप हो गया. श्यामा ने आज्ञा भरे स्वर में कहा,“आगे और भी कुछ है या बस?”
रामनिहाल ने सिर झुका कर कहा,“हां, और भी कुछ है.”
“वही कहो न!”
“कहता हूं. मुझे धीरे-धीरे मालूम हुआ कि ब्रजकिशोर बाबू यह चाहते हैं कि मोहनलाल अदालत से पागल मान लिए जाएं और ब्रजकिशोर उनकी सम्पत्ति के प्रबन्धक बना दिए जाएं, क्योंकि वे ही मोहनलाल के निकट सम्बन्धी थे. भगवान् जाने इसमें क्या रहस्य है, किन्तु संसार तो दूसरे को मूर्ख बनाने के व्यवसाय पर चल रहा है. मोहन अपने संदेह के कारण पूरा पागल बन गया है. तुम जो यह चिट्ठियों का बण्डल देख रही हो, वह मनोरमा का है.”
रामनिहाल फिर रुक गया. श्यामा ने फिर तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा. रामनिहाल कहने लगा,“तुमको भी संदेह हो रहा है. सो ठीक ही है. मुझे भी कुछ संदेह हो रहा है, मनोरमा क्यों मुझे इस समय बुला रही है.”
अब श्यामा ने हंसकर कहा,“तो क्या तुम समझते हो कि मनोरमा तुमको प्यार करती है और वह दुश्चरित्रा है? छि: रामनिहाल, यह तुम क्यों सोच रहे हो? देखूं तो, तुम्हारे हाथ में यह कौन-सा चित्र है, क्या मनोरमा का ही?” कहते-कहते श्यामा ने रामनिहाल के हाथ से चित्र ले लिया. उसने आश्चर्य-भरे स्वर में कहा,“अरे, यह तो मेरा ही है? तो क्या तुम मुझसे प्रेम करने का लड़कपन करते हो? यह अच्छी फांसी लगी है तुमको. मनोरमा तुमको प्यार करती है और तुम मुझको. मन के विनोद के लिए तुमने अच्छा साधन जुटाया है. तभी कायरों की तरह यहां से बोरिया-बंधना लेकर भागने की तैयारी कर ली है!”
रामनिहाल हत्बुद्धि अपराधी-सा श्यामा को देखने लगा. जैसे उसे कहीं भागने की राह न हो. श्यामा दृढ़ स्वर में कहने लगी,“निहाल बाबू! प्यार करना बड़ा कठिन है. तुम इस खेल को नहीं जानते. इसके चक्कर में पड़ना भी मत. हां, एक दुखिया स्त्री तुमको अपनी सहायता के लिए बुला रही है. जाओ, उसकी सहायता करके लौट आओ. तुम्हारा सामान यहीं रहेगा. तुमको अभी यहीं रहना होगा. समझे. अभी तुमको मेरी संरक्षता की आवश्यकता है. उठो. नहा-धो लो. जो ट्रेन मिले, उससे पटने जाकर ब्रजकिशोर की चालाकियों से मनोरमा की रक्षा करो. और फिर मेरे यहां चले आना. यह सब तुम्हारा भ्रम था. संदेह था.”
Illustration: Kamal Rao@Pinterest
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Title: Reduslim Reviews: Unveiling Negative Feedback and Providing a
Balanced Perspective
Introduction:
When it comes to health and weight loss products,
its critical to thoroughly assess their claims, effectiveness,
and potential side effects. Among the popular weight loss supplements available in the market,
Reduslim has generated a significant amount of attention. However, it
is important to acknowledge both positive and
negative feedback to make well-informed decisions. In this article, we will delve into Reduslim recensioni negative, shedding
light on the criticisms and sharing a balanced perspective.
The Promise of Reduslim:
Reduslim is marketed as a natural weight loss supplement that aims to accelerate
metabolism, curb appetite, and promote fat burning.
Its manufacturers claim that it can significantly aid in weight loss efforts when combined
with a healthy diet and exercise routine. With such assurances, its no wonder many individuals express interest in this product.
Negative Reduslim Reviews:
While some Reduslim users report positive experiences and successful weight loss journeys,
its essential to address the negative reviews that have
emerged. Some individuals have expressed dissatisfaction, claiming that
the product did not deliver the desired results despite prolonged usage.
A few users have mentioned experiencing no changes in their
weight or appetite suppression, which contradicts the manufacturers promises.
Furthermore, there have been instances where users reported mild side effects such as digestive
discomfort, headaches, or a jittery feeling. While these effects are not uncommon in weight loss supplements, it is
crucial to take note of individual sensitivities and consult
with a healthcare professional before starting any new
dietary regimen.
Verifying the Criticisms:
It is important not to dismiss negative reviews outright but rather examine them
objectively. In some cases, its possible that individuals may have unrealistic expectations, not following the
recommended dosage, or neglecting their overall lifestyle habits, which significantly influence weight loss outcomes.
Consequently, it is crucial to recognize the importance of a
balanced approach that incorporates exercise and a well-rounded diet
in conjunction with any weight loss supplement, including
Reduslim.
Consulting with Experts:
Before embarking on any weight loss journey or starting a new dietary supplement, it is always advisable to consult with healthcare professionals who possess expertise in the field.
By doing so, individuals can receive personalized advice based on their specific needs, health conditions, and goals.
A healthcare professional can provide valuable insights into the
potential benefits, side effects, and interactions
of Reduslim or any other weight loss aid.
Conclusion:
While Reduslim has garnered both positive and negative reviews, it remains important to approach the topic with an open mind.
The experiences of users can vary due to various factors such
as individual biology, adherence to recommended dosages, lifestyle habits, and pre-existing medical conditions.
By considering user feedback, consulting with experts,
and maintaining a balanced approach to weight loss, individuals can make informed decisions regarding Reduslim
or any other weight loss supplement they may choose.
Remember, a comprehensive approach to healthy living is always
the key to achieving long-lasting weight loss results.
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